Shloka 31 to 38 Chapter 1 (Arjuna Vishada Yoga) of Gita by Yatra Tatra Sarvatra

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Ashok Yadav
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Published on 26 Nov 2020 / In Educational

अर्जुन दोनों सेनाओं में अपने स्वजनों को देखकर, परेशान हो गया I उसे हर तरफ अपने प्रियजन ही नजर आ रहे थे I चाचा, बाबा, गुरु, मामा, भाई, भतीजे, पुत्र, पौत्र, दोस्त, ससुर, साले, बहनोई आदि सभी तो वहां मौजूद थे I उन सबको वहां देखकर अर्जुन का मुंह सूखने लगा, शरीर कांपने लगा, रोंगटे खड़े हो गए, उसका धनुष हाथ से गिर पड़ा, उसकी सारी देह तपने लगी, उसे चक्कर आ गया और वह इतनी कमजोरी महसूस करने लगा, कि खड़ा रहना भी उसके लिए संभव न रह गया । आज हम देखेंगे, कि आगे अर्जुन ने क्या किया ?

निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव ।
न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे ।। ३१।।,
न काङ्क्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च ।
किं नो राज्येन गोविन्द किं भोगैर्जीवितेन वा ।।३२।।,
येषामर्थे काङ्क्षितं नो राज्यं भोगाः सुखानि च ।
ते इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणान्स्त्यक्त्वा धनानि च ।।३३।।,
आचार्याः पितरः पुत्रास्तथैव च पितामहाः ।
मातुलाः श्वशुराः पौत्राः श्यालाः सम्बन्धिनस्तथा ।।३४।।,
एतान्न हन्तुमिच्छामि घ्नतोऽपि मधुसूदन ।
अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः किं नु महीकृते ।।३५।।,
निहत्य धार्तराष्ट्रान्न: का प्रीतिः स्याज्जनार्दन ।
पापमेवाश्रयेदस्मान् हत्वैतानाततायिनः ।। ३६।।,
तस्मान्नार्हा वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान् स्वबान्धवान् ।
स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव ।। ३७।।,
यद्यप्येते न पश्यन्ति लोभोपहतचेतसः ।
कुलक्षय कृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम् ।। ३८।।,

इन श्लोकों का हिन्दी में अनुवाद सुन लेते हैं । अर्जुन ने आगे श्री कृष्ण से कहा कि - “हे केशव, मैं लक्षणों को विपरीत ही देख रहा हूँ तथा युद्ध में स्वजन समुदाय को मारकर कल्याण भी नहीं देखता। हे कृष्ण, मैं न तो विजय चाहता हूँ और न राज्य तथा सुखों को ही । हे गोविन्द, हमें ऐसे राज्य से क्या प्रयोजन है अथवा ऐसे भोगों और जीवन से भी क्या लाभ है ? हमें जिनके लिए राज्य, भोग और सुखादि अभीष्ट हैं, वे ही ये सब धन और जीवन की आशा को त्यागकर युद्ध में खड़े हैं । गुरुजन, ताऊ-चाचा, लड़के और उसी प्रकार दादा, मामा, ससुर, पौत्र, साले तथा और भी संबंधी लोग हैं । हे मधुसूदन, यदि वे मुझे मार भी डालें तो भी, अथवा तीनों लोकों के राज्य के लिए भी, मैं इन सब को मारना नहीं चाहता; फिर पृथ्वी के लिए तो कहना ही क्या है ? हे जनार्दन, धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारकर हमें क्या प्रसन्नता होगी ? इन आतताइयों को मारकर तो हमें पाप ही लगेगा । अतएव हे माधव, अपने ही बान्धव, धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारना हमारे लिए ठीक नहीं हैं; क्योंकि अपने ही कुटुंब को मारकर हम कैसे सुखी होंगे ? यद्यपि, लोभ से भ्रष्टचित्त हुए ये लोग कुल के नाश से उत्पन्न दोष को और मित्रों से विरोध करने में, पाप को नहीं देखते हैं ।“

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